मुगल इतिहास का सबसे कायर बादशाह जो छोटी सी फौज देख लगा था कांपने, डर के मारे टेक दिए थे घुटने

Mohini Kumari
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18वीं सदी के दूसरे दशक, यानी 1750 के बाद, मुगल साम्राज्य लगभग खत्म हो गया था। 1761 में हुई पानीपत की लड़ाई ने हिंदुस्तान की दिशा का पता लगाया।

मराठा अहमद शाह अब्दाली के खिलाफ डटकर लड़े, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। अंग्रेज भी पानीपत की घटनाओं को देख रहे थे। 1757 में प्लासी की लड़ाई में बंगाल के नवाब के खिलाफ जीतने के बाद उन्हें बहुत उत्साह था।

उन्हें सिर्फ मौका का इंतजार था। 1764 में बक्सर की लड़ाई ने साबित कर दिया कि महान होने का दंभ भरने वाले मुगलों की ताकत अब जमीन पर छीड़ हो गई थी, इसलिए यह मौका आया।

1764 में लड़ा गया बक्सर युद्ध

1764 में अंग्रेज सेनापति मेजर हेक्टर मुनरो ने बिहार के बक्सर में मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय, अवध के नवाब और बंगाल के नवाब मीर कासिम की संयुक्त सेना को दो दिन की लड़ाई में हरा दिया।

इन तीनों की संयुक्त फौज अंग्रेजों की तुलना में कहीं अधिक थी, लेकिन उनकी योग्यता उन्नीस थी और मुगलों की तकदीर अंग्रेजों के हाथ में चली गई।

इतिहासकार बताते हैं कि जब अंग्रेजों और संयुक्त सेनाओं ने बक्सर में टकराव किया, तो ऐसा लगता था कि भले ही अंग्रेजों ने 1757 में प्लासी की लड़ाई जीत ली हो, लेकिन दो दिन की लड़ाई में अंग्रेजों की जीत स्पष्ट थी।

1765 का आत्मघाती समझौता

1765 में बक्सर की लड़ाई के बाद, अंग्रेजों और मुगल बादशाह ने पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड और उड़ीसा का दीवानी और राजस्व अधिकार प्राप्त किया। देश के इतने हिस्सों पर राजस्व अधिकार पाने का स्पष्ट अर्थ था कि मुगलों की सत्ता अब दिल्ली तक सीमित रह गई है।

इस समझौते के बाद, अंग्रेजों ने अब खुलकर मैदान में प्रवेश करना शुरू कर दिया। मुगल साम्राज्य के व्यापार में भी उनका दखल बढ़ा। अब कलकत्ता नवाब के अधीन था।

वास्तव में, वह सभी निर्णय अंग्रेजों की सलाह पर किया करता था। अंग्रेजों ने बंगाल में अपने अनुकूल लोगों को सत्ता सौंपते रहे और बंगाल की दृष्टि दिल्ली पर जा टिकी थी।

इतिहासकार बताते हैं कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने घोषणा की कि मुगल बादशाहों और नवाबों की जगह अब भारत में शासन सत्ता के असली चेहरे हैं।

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